खूब छा रे म्यार लाटो “ऐ म्यारा लाल गोपाल चिफला कपाल” अपनी बोली-भाषा बचाने के कुछ लोग हैं जो आज भी इन्हें संजीवनी देने के प्रयास में जुटे हैं, गिरीश पंत ऐसी शख्सियत हैं,

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●नरेंद्र पिमोली●

खूब छा रे म्यार लाटो

“ऐ म्यारा लाल गोपाल चिफला कपाल”

आज के युग में बदलते वक्त के साथ युवा पीढ़ी अपनी बोली-भाषा से लगाव खोने लगी है, लेकिन कुछ लोग हैं जो आज भी इन्हें संजीवनी देने के प्रयास में जुटे हैं। गिरीश पंत ऐसी ही शख्सियत हैं।

आइए बताते हैं आपको गिरीश पन्त के बारे में

40 वर्षों से फिनलैंड में निवास कर रहे इंजीनियर गिरीश पंत सोशल मीडिया के जरिए पहाड़ की नई पीढ़ी को गढ़वाली कुमाऊंनी बोली के प्रति जागरूक कर रहे हैं। उनका कहना है कि हमें अपनी मातृभाषा को बढ़ावा देते हुए उसका प्रचार-प्रसार और संरक्षण करना चाहिए। अन्य भाषाओं का ज्ञान होना भी जरूरी है,

बहुत अच्छी बात है, लेकिन नई पीढ़ी को अपनों के बीच रहकर अपनी मातृभाषा बोली भाषा/बोली को प्राथमिकता के लिए गिरीश पन्त अपने पहाड़ के लोंगो को जागरूक कर रहे है,

गिरीश पन्त पौड़ी जनपद के बाली कंडारस्यूं पट्टी के भरगड़ी-बज्वाड़ गांव निवासी है, वो अभी तक जर्मनी, स्वीडन, नार्वे इधर, लोकभाषा साहित्य के क्षेत्र में कार्य कर चुके है,

इंजीनियर गिरीश पंत गढ़वाली कुमाऊंनी भाषा के गुजराती, कश्मीरी सहित अन्य विदेशी भाषाओं का ज्ञान संरक्षण में जुटे हैं। सोशल मीडिया के जरिए अच्छा है, लेकिन लोक भाषा सबसे जरूरी है। फेसबुक के माध्यम से वो वीडियो जारी कर के वो युवा पीढ़ी को घर, गांवों में गढ़वाली-कुमाऊंनी बोलने के लिए प्रेरित कर रहे है

उत्तराखंड की संस्कृति, लोक-विधाएं और बोली-भाषा हमारी धरोहर हैं। ये हमारी परंपराएं और बोली-भाषा ही है, जो हमें हमारे अस्तित्व का अहसास कराती हैं। हमें ये बताती हैं कि हम देवभूमि उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करते हैं। बदलते वक्त के साथ युवा पीढ़ी अपनी बोली-भाषा से लगाव खोने लगी है, लेकिन कुछ लोग हैं जो आज भी इन्हें संजीवनी देने के प्रयास में जुटे हैं।गिरीश पंत युवा पीढ़ी को गढ़वाली-कुमाऊंनी से जोड़ने की अलख जगाए हुए हैं।

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